मैं इस ग्रुप के जरिए बिरादरी के तमाम जिम्मेदारान, समाजसेवी हजरात,बिरादरी में सुधार के लिए मेहनत करने वाले हमारे नौजवान साथी और ग्रुप के तमाम फिक्रमंद साथियों की खिदमत में अपनी नाकिश अक्ल से कुछ मशवरे पेश कर रहा हूं।*
अगर आपको यह मशवरे मुनासिब लगे तो जब भी मीटिंग हो तो इन मशवरों पर विचार किया जा सकता है वैसे बिरादरी के अंदर काफी काबिल लोग मोजूद हैं फिर भी मैं अपनी तरफ से जो मुझे समझ आया है उसके हिसाब से कुछ मशवरे आपकी खिदमत में पेश कर रहा हूं।उम्मीद है आप इन पर जरूर गौर और फिक्र करेंगे:-
जब हम टारगेट तय कर लेंगे तो उसके बाद उसको केसे हासिल किया जाए उसपर विचार किया जाएगा और कोई एक या दो तरीके फिक्स करके हम उसपर चलकर अपने टारगेट को हासिल करेंगे और एक साल बाद या दो साल बाद हम अपना जायजा लेकर ये अंदाजा लगा सकेंगे की हम सही रास्ते पर है या अपने मिशन से भटक गए है और ये भी की हम हमारी मंजिल का कितना हिस्सा तय कर चुके है और कितना बाकी है और अब उसको जल्द से जल्द केसे हासिल किया जा सके।
पिछले 10-15 साल में हम सामाजिक बुराइयों के मामले में गहरे से गहरे गड्ढे में गिरे है और गिरते ही जा रहे है।यानि दूसरी बिरादरिया इन पंद्रह सालों में दो कदम ही सही लेकिन आगे बढ़ी है लेकिन हम दो नही चार कदम पीछे गए है यानी हमारा फासला दूसरी बिरादरियों या समाजों से gape 6 कदम का हो गया है।
ग्रुप के माध्यम से ही कुछ दिन पहले कुछ बुराइयों की तरफ ध्यान दिलाया गया जिनमे 1.सूद (ब्याज)2.जीनाखोरी(बदकारी,
rape) की तरफ ध्यान दिलाया गया की इनको कंट्रोल किया जाए। इस लिस्ट में कुछ और चीजे add करना चाहता हूं *जिन पर फोकस करके कुछ को बढ़ाने की जरूरत है तो कुछ को कंट्रोल करने की जरूरत है* :-
1.मरी हुई गैरत को जिंदा करना.
2.आने वाली नस्ल की तरबियत.
3.सूद.
5.सट्टा.(ऑनलाइन/ऑफ लाइन)
6.सामाजिक ढांचे को मुन्नज्जम करना.
7.औरतों से गधा मजदूरी करवाना बंद करवाना.
8.बिरादरी का या अपने ग्रुप का बैतुलमाल बनाना.
9.गरीब परिवारों को भत्ता देना
10.पूरी बिरादरी का मिलकर लड़कियों के लिए एक मदरसा कायम करना
11.लोकल स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा करना
12.हर गांव में कब्रिस्तान की बाउंड्री करवाना
13.हर गांव में शादी ब्याह/इज्तिमाई खाने के लिए बिल्डिंग बनाना
14. अपने रहन सहन के स्तर में सुधार करना (सादा जीवन उच्च विचार)
आज हमारी सोसाइटी में जो बड़ी-बड़ी बीमारियां पैदा हो रही है उसमें कहीं ना कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारा बेगैरत होना जिम्मेदार है अगर हमारे अंदर गैरत होती तो हमारे गांव और बिरादरी के अंदर तमाम तरह की बुराइयां पैदा ही नहीं होती।आज हम इस कदर बेहिस हो गए हैं कि हमारी मांऐ हमारी बहनें हमारी बेटियां गैरो के साथ घूम रही है फिर रही है और अल्लाह रहम करे पता नहीं क्या-क्या कर रही है ब मार्केट के अंदर अकेली घूमती रहती हैं और उनके जवान बेटे जवान भाई और बाप इन सबको देखकर भी खामोश रहते है जैसे ये कोई बुराई ही नही है।
शिकार हो गई है।* लेकिन हमारे कोई परवाह नहीं है। ये *नशाखोरी की वजह से आने वाले वक्त में हमारे गांव या बिरादरी को असामयिक रूप से बहुत बड़ी संख्या में बेवा और यतीम हमारी बस्ती को तोहफे में* देने वाली है।
इसी तरह से हमारी नई नस्ल तालीम से महरूम है लेकिन हम हम इस कदर बेहिस हो गए हैं कि कुछ भी हो जाए हमें लगता है कि हो जाने दो क्या फर्क पड़ता है सबके सही हो रहा है यकीन मानिए अगर हमारे अंदर गैरत जिंदा होती तो ना तो हमारी मां और बहनें इस तरह से इधर-उधर घूमती फिरती ना हमारी नस्ले जो है नशे का शिकार होती और ना हमारी नस्ल नशाखोरी का सामान सप्लाई करती।जितनी भी बुराइयां हमारे घर और समाज में पैदा हो रही है यह कहीं ना कहीं हमारे छोटे और बड़ों के अंदर बैगेरत होने की वजह से है इसलिए सबसे सख्त जरूरत है कि हमारी गैरत जो मर गई है उसको दोबारा जिंदा किया जाए ।उम्मीद करता हूं अगर ये गैरत जिंदा हो जाए तो बहुत सॉरी समस्याएं तो ऐसी है जो जन्म ही नहीं ले पाएंगी उनका ऑटोमेटिक इलाज हो जाएगा ये हमारी बैगेरती ही है जो बुराइयों को फल फूलने का मौका दे रही है।
*जब गैरत जिंदा होती है तो उसकी एक मिसाल देखिए इराक सीरिया युद्ध के दौरान एक छोटी नाबालिक लड़की अपनी जान बचाकर भाग रही होती है और जब कैमरामैन उसकी तस्वीर लेने के लिए दौड़ता है तो वह लड़की दोनों हाथ उठाकर उसे कैमरामैन से कहती है अंकल खुदा के लिए मेरी तस्वीर ना लीजिए अभी मैं बेपर्दा हूं*
और हमारे यहां कुछ भी हो जाए कोई कुछ भी करले हमारे कोई फर्क चक्कर में हमारी इज्जत जाती हो तो जाए।हमारे नजदीक ₹50 की अहमियत है लेकिन खुद की इज्जत की नहीं हमने हमारी इज्जत को कभी समझा ही नहीं अगर हमने हमारी इज्जत को समझा होता तो कभी ऐसा होता ही नही।
हमारी आने वाली नस्ल की तरबियत की सख्त जरूरत है।
हम हमारी सोसाइटी में जो भी सुधार या बदलाव लाना चाहते है
और अगर हमने इससे मुंह फेरा तो आज जो हालात है उससे कई गुना हालात खराब होंगे और बीमारी/मर्ज इस कद्र बढ़ जाएगा की इलाज ना मुमकिन हो जायेगा।
*नई नस्ल की तरबियत के लिए आप स्कूल खोलकर या इंग्लिश मीडियम में अपने बच्चो को पढ़ाकर ये काम नही कर सकते। इसके लिए आपको आपके मस्जिद में चलने वाले मकातीब को मुनज्जम तरीके से चलाना पड़ेगा इसमें एक्टिव रहना पड़ेगा। ये कोई हल्का काम नही है बल्कि आप और कोइसा भी काम मत करो सोसाइटी में सिर्फ मकातिब के अंदर अच्छे मुदर्रिस रखकर इनको व्यवस्थित तरीके से 10 साल तक चलाकर देखो आपको इंशा अल्लाह हर मर्ज में शिफा होगी।ये रास्ता लंबा जरूर है लेकिन हर समस्या का समाधान है जो हम चाहते है।*
कई मस्जिद ऐसी हैं जिनके ईमाम जब एक बार छोड़ कर चले जाते हैं तो कहीं कई महीनो तक दूसरे ईमाम नहीं आते।
हमारी बिरादरी की कई मस्जिदों में ऐसे इमाम हैं जो केवल नाम मात्र के इमाम है जैसे हम खेतों में चरोडू भगाने के लिए ओडा बना देते हैं जो जाहिरी तौर पर इंसान नजर आता है लेकिन वह होता कपड़ा है इसी तरह से कई मस्जिदों में ऐसे इमाम है जो केवल इमाम की पोस्ट पर बैठे हुए हैं लेकिन उन बेचारों को कुछ पता नहीं कि हमारी क्या जिम्मेदारी है बतौर एक इमाम।
और यह सब इसलिए होता है कि हम इमाम को हदिए के तौर पर जो रकम देते हैं वह बहुत ही कम देते हैं जबकि उनको महीने का कम से भी कम 15000 दिए देने चाहिए लेकिन हम 6000,7000,8000 रुपए देकर काम चला रहे हैं तो फिर इतने पैसों में तो ऐसे ही इमाम मिलेंगे। फिर यह पैसा भी उनको वक्त पर नहीं दिया जाता है इसलिए फिर वह भी दिल लगाकर मेहनत नहीं कर पाते हैं
एक चीनी कहावत है की एक भूखे आदमी को उसकी भूख मिटाने के लिए एक मछली देने से बेहतर है कि उसको आप मछली पकड़ना सीखा दो।
अभी तालीम नहीं होने के सबब आप देख लीजिए कि जुम्मे के दिन जुम्मे की नमाज में जब तक इमाम साहब पहली रकअत के रूकू में नहीं चले जाते तब तक शोर थमता नहीं है और जब सलाम फेर दी जाती है तो सलाम फेरते ही मस्जिद से बाहर निकलने की दौड़ शुरू हो जाती है और कम से कम करीब 70% मस्जिद जो है दो रकात के बाद खाली हो जाती है।
अभी दीपावली की छुट्टियां चल रही है और आपके मोहल्ले में बच्चे झुंड के झुंड ताश खेलते हुए देखने को मिल जाएंगे।
तालीम नहीं होने की वजह से बच्चों का यह हाल है की मस्जिद से नमाज पढ़ कर निकलते हैं और बाबा शौकत के बरामदे में बैठकर ताश खेलने लग जाते हैं और आप उनको टोको तो उल्टे चलते हैं उनको मना करने की हिम्मत नहीं है अब हमारे अंदर।
और यह सब बच्चे स्कूलों में तो जाते हैं स्कूल में तालीम तो हासिल कर रहे हैं लेकिन उनकी तरबियत नहीं हो पा रही है उनकी तबीयत सिर्फ मकातिब के अंदर हो सकती है अगर हमने मकातिब को दुरुस्त नहीं किया तो हमारे घर की,हमारे मोहल्ले की, हमारी बिरादरी की हालत और बदतर होने वाली है।
ये आठ की,खाट की ओर 360 की नमाज पढ़ने वाली नस्ल, ये डाबरो से मछली पकड़ने वाली नस्ल,ताश खेलते, रातों को जागने वाले,नशा करने वाली नस्ल में से जब हमारे रहबर निकलेंगे तो सोचो वो हमारी बिरादरी को कहां लेकर जाएंगे?सोचकर ही डर लगता है।
पिछले दिनों हम दो-तीन दोस्त बैठे हुए थे और आपस में तालीम के सिलसिले में बात कर रहे थे तो हमारे एक दोस्त को एक बोहरा मिला था तो बोहरा भाई ने बताया कि अभी हमारी सोसाइटी के अंदर हमारी मेहनत इस बात पर चल रही है की हमारे हर घर के अंदर एक हाफिज ऐ कुरान कम से कम होना चाहिए और उस बोहरा भाई ने यह भी बताया कि मेरे तीन बच्चे हैं और अल्हम्दुलिल्लाह तीनों हाफिज ए कुरान है। ऐसी मेहनत के लिए फिक्रमंद होना पड़ेगा हमको।
यह जो तालीम का काम है इन भोले भाले लोगों को मछली पकड़ना सिखाएगा और जब यह एक बार मछली पकड़ना सीख जाएंगे तो आपको इनकी रोज-रोज मदद नहीं करनी पड़ेगी आपको इनकी हर चीज में मॉनिटरिंग करने की जरूरत नहीं पड़ेगी बल्कि वह खुद आत्म नियंत्रित हो जाएंगे और वे सोसाइटी में एक अच्छे फर्द के तौर पर अपनी पहचान बनाएंगे और आपके खैर के कामों में हिस्सेदारी बनेंगे आपकी टांग पकड़ कर नहीं खींचेंगे
हम ग्रुप के मेंबर भी अगर अपनी अपने मोहल्ले में एक्टिव रुप से इस काम को करने के लग जाए तो ये बिरादरी की सबसे बड़ी खिदमत होगी। और इसके जो नताइज मिलेंगे वो स्थाई होंगे इंशा अल्लाह।
कि दाना खाक में मिलकर गुलोगुलजार होता है।
(बाकी के नुक्तों पर डिटेल दूसरी किस्त में इंशाअल्लाह)
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