Thursday, July 3, 2025

— मिर्ज़ा शरीफ़ुद्दीन साहब की याद में एक रुख़सती कहानी:---"फलावदा की फिज़ाओं में गूंजती थी एक आवाज़... आज वो खामोश हो गई"—



"फलावदा की फिज़ाओं में गूंजती थी एक आवाज़... आज वो खामोश हो गई"

— एक ख़ास रुख़सती तहरीर मिर्ज़ा शरीफ़ुद्दीन साहब की याद में
✍️ मिर्ज़ा मिन्हाजुद्दीन साहब | "मुल्तानी समाज" राष्ट्रीय समाचार पत्रिका


"गुज़र गए वो लोग भी, जो राहों को रोशनी देते थे..."

फलावदा की सरज़मीन हमेशा से इल्म, अदब और तहज़ीब की ज़िंदा मिसाल रही है। यहां की हवाओं में एक नरमी, लहजों में मिठास और चेहरों पर एक फिक्रमंद सुकून हुआ करता था। इन तमाम खूबियों का अगर कोई ज़िंदा पुतला था — तो वो थे जनाब मिर्ज़ा शरीफुद्दीन साहब

आज जब सुबह कुछ ग़मगीन थी, सूरज की रौशनी में एक हलकी सी उदासी थी, और हवा कुछ रुकी-रुकी सी महसूस हो रही थी — तो यूं लगा कि फलावदा की रूह किसी अज़ीम शख़्स के जाने पर मातम कर रही है।


"एक नाम जो सिर्फ़ पहचान नहीं, एक अहसास था..."

मिर्ज़ा शरीफुद्दीन साहब का ज़िक्र महज़ एक इंसान के तौर पर नहीं किया जा सकता।
वो एक लहजा थे, एक अंदाज़-ए-गुफ़्तगू थे,
वो एक दौर की आख़िरी निशानी थे —
वो दौर जिसमें बुज़ुर्गों का कहा हुआ दिल में उतर जाता था,
जिसमें मजलिसें इल्म से रौशन होती थीं,
जिसमें अदब सिर झुकाकर बात करता था।

उनकी आवाज़ में एक ऐसी खनक थी कि जो एक बार सुन ले, उम्र भर न भूले।
वो जब बोलते थे, तो अल्फ़ाज़ सजते नहीं थे — सर झुकाकर उनकी खिदमत करते थे।


"अंदाज़-ए-बयां से महकती थी महफ़िल"

उनकी मौजूदगी महज़ एक साया नहीं थी,
वो दिलों को सुकून देने वाला साया-ए-रहमत थे।
जिन्हें सुना नहीं — महसूस किया जाता था।
उनकी हर बात में एक तजुर्बा, एक दर्द, और एक दुआ छुपी होती थी।

“मुल्कों-मुल्कों फिरते देखा, मगर शरीफ़ुद्दीन सा शख्स न देखा...”
कहते हैं ना, कुछ लोग चले जाते हैं लेकिन उनके जाने से सिर्फ़ कुर्सी खाली नहीं होती — एक दौर ख़त्म हो जाता है।


"वो चले गए... मगर रह गईं उनकी बातें"

बीते रोज़, लम्बी बीमारी से लड़ते हुए उन्होंने दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह दिया।
मगर सच ये है कि वो कहीं नहीं गए —
उनकी कहानियां, उनकी नसीहतें, उनका मुस्कुराता चेहरा —
फलावदा की हवाओं में अब भी तैरता महसूस होता है।

उनका जाना, एक आवाज़ का खामोश होना नहीं —
बल्कि एक पूरे महज़बी, सलीक़ेदार, और मोहब्बत से भरे दौर का ख़त्म हो जाना है।


"शेर के साथ एक आख़िरी सलाम..."

؎ "गुज़र जाए कोई ज़िन्दगी से, तो सब्र आता है
मगर जो दिल में बसा हो — वो कैसे भूला जाता है..."


"‘मुल्तानी समाज’ से एक गुज़ारिश"

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इन्हीं अल्फ़ाज़ के साथ मिर्ज़ा शरीफुद्दीन साहब को आख़िरी सलाम,
आपका सफ़र मुकम्मल हुआ, मगर आपकी यादें अब भी हमारे साथ हैं…

إِنَّا لِلَّٰهِ وَإِنَّا إِلَيْهِ رَاجِعُونَ



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