पहले,,,,हर शख्स जाते ही एक सिपारा या यासीन शरीफ़ पढ़कर,,,मरहूम के लिए इसाले सवाब करता था,,,, "आजकल" सिर्फ़ और सिर्फ़ बातें
पहले ,,,हर शख्स नमाज़े जनाज़ा मे शामिल होता था "आजकल" ज़्यादातर आस पास खड़े रहते हैं जैसे कोई *तमाशा* हो रहा हो,,,, अगर पूछो तो जवाब मिलता है "नापाक" हूँ,,,,अफ़सोस
पहले,,, सोयम के दिन से मरहूम के इसाले सवाब के लिए,,,,,,यतीमों मिस्कीनो, गरीबो को अपनी "हैसियत" के हिसाब से खाना खिलाया जाता था,,, "आजकल" आम लोगो की दावत वह भी मस्जिद में "एलानिया" और आधे लोग खाना "पकवाने" में मशगूल,,,, न तिलावते क़ुरआन, न दूसरे वज़ाइफ न दुआ में शामिल
पहले ,,क़रीबी रिश्तेदार, पड़ोसी मय्यत के दिन से लेकर "चालीसवें"
तक,,,,रोज़ाना तिलावते क़ुरआन और वज़ाइफ ,,,,के ज़रिए मरहूम के लिये "इज्तेमाई" इसाले सवाब करते थे,, "आजकल" दसवाँ, बीसवाँ और चालीसवें के नाम पे सिर्फ़ और सिर्फ़ "दावत" खाने आते हैं,,,,, न कोई तिलावते क़ुरआन न कोई वज़ाइफ,,,,, और उसपर "सितम" यह इन दावतों में यतीमों, मिस्कीनों, गरीबो को कोई जगह नहीँ,,,,, (कुछ घरों को छोड़कर)
कहीँ कहीँ,,,, तो ऐसे मामले पेश आते हैं,,,,, मरीज़ के "इलाज" के लिए "क़र्ज़" लिया जाता है (मजबूरी) में,,,,जब इलाज के लिये क़र्ज़ लिया गया तो "कफ़न दफ़न" किस तरह किया गया होगा सोचने का "मुक़ाम" है,,,,,ज़मीन जायदाद होती है तो बेचकर "क़र्ज़" उतारा जाता है,,,,अगर किसी के पास बेचने के लिये कुछ नहीँ तो,,,,लिया गया क़र्ज़ "सूद ब्याज़" समेत लौटाना पड़ता है।
बात कुछ कड़वी है,,,,लेकिन देखने मे यही आ रहा है,, *ग़लत लगे तो इस्लाह फ़रमाए*
*खूबसूरत लड़की की तस्वीर इस मैसेज में सिर्फ़ इसलिये लगायी गयी है। ताकि कुछ लोग इसे गौर से पढ़ ले !!
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