काश असम के शिक्षा मंत्री और Tv चैनलों के बिकाऊ एंकर पहले इन मदरसों का इतिहास (तारीख़) पढ़ लेते..!
शायद उन्हें पता नहीं ..1867 के पहले
अंग्रेज़ों का एक फ़रमान जारी हुआ..
जहाँ भी उलेमाओं को पाओ क़त्ल कर दो..
वरना हिन्दुस्तान पर हुकूमत करना आसान नहीं
होगा
50 हज़ार से ज़्यादा उलेमाओं का अंग्रेज़ों ने
ढूँढ ढूँढ के क़त्ल कर दिया...
आलम ये था कि दिल्ली और आसपास के
शहरों में ...कोई ऐसा नहीं बचा...जो लोगों के मरने
के बाद जनाज़े की नमाज़ पढ़ा सके.....10-10 दिन मय्यत को रखकर जनाज़े की नमाज़ पढ़ाने वालों को ढूँढा जाता था....जब कोई नहीं मिलता था ...और मय्यत से बदबू आने लगती थी ...तब थक हार कर बिना जनाज़े की नमाज़ के मय्यत को दफ़ना दिया जाता था.!
बचे खुचे 2-4 उलेमाओं ने मशवरा किया के अंग्रेज़ों से ये लड़ाई हम ऐसे नहीं लड़ सकते.....हमें सबसे पहले लोगों को जोड़ना होगा..!
इसी फ़िक्र के चलते 1867 में देवबंद में एक छोटा सा मद्रसा शुरू किया गया....जिसमें उस वक़्त सिर्फ़ ....एक मुदर्रिस (पढ़ाने वाला) और एक तालिब-ए-इल्म (पढ़ने वाला) था.....1867 में क़ायम उसी छोटे से मद्रसे को आज पूरी दुनियाँ दारुलउलूम देवबंद के नाम से जानती है.!
जिन्होंने तारीख़ (इतिहास) पढ़ी होगी उन्हें पता होगा कि देवबंद के उस छोटे से मद्रसे का उस वक़्त का इकलौता तालिब-ए-इल्म कोई और नहीं ....शेख़-उल-हिन्द मौलाना महमूद हसन देवबंदी थे, जिन्होंने रेशमी रूमाल तहरीक यानी जंग-ए-आज़ादी की बुनियाद रक्खी और राजा महेंन्द्र प्रताप को उसका अध्यक्ष बनाया...
ये वही....शेख़-उल-हिन्द मौलाना महमूद हसन देवबंदी थे जिन्होंने गाँधी जी को आज़ादी की लड़ाई का नेता बनवाया....और माल्टा की जेल में क़ैद रहने के बाद निकलने पर 1925 में अमृतसर की एक कानफ़्रेंस में जिसकी सदारत (अध्यक्षता) गाँधी जी कर रहे थे.....
गाँधी जी को महात्मा का ख़िताब दिया.....उस दिन से ...मोहनदास करम चंद्र गाँधी...महात्मा गाँधी कहे गये..!
ये उन्हीं मदरसों की शाख़ थी जिसने देश को पहला राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, देश का पहला शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, राजाराम मोहन राय जैसा थिंकर, और देश को परमाणु सम्पन्न कराने वाला मिसाइल मैन ए.पी.जे. अब्दुल कलाम दिया.!
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