Wednesday, July 29, 2020

कह दो कि मेरी नमाज़ मेरी क़ुरबानी 'यानि' मेरा जीना मेरा मरना अल्लाह के लिए है जो सब आलमों का रब है -कुरआन 6:162

बकरा ईद का असल नाम ईदुल अज़हा है, मुसलमानों में साल में दो ही त्यौहार मजहबी तौर पर मनाए जाते हैं एक ईदुल फ़ित्र और दूसरा ईदुल अज़हा, ईदुल फ़ित्र जहाँ रमज़ान के पूरा होने पर मनाई जाती है वहीं वह कुरआन के नाज़िल होने के शुरू होने की ख़ुशी भी अपने अन्दर रखती है. ऐसे ही ईदुल अज़हा जहाँ हज के पूरा होने पर मनाई जाती है वहीं इन्ही दिनों में कुरआन 23 साल में नाज़िल हो कर पूरा हुआ था, और दीन के मुकम्मल होने का ऐलान कर दिया गया था. (सूरेह मायदा 3)
ईदुल अज़हा असल में हज से जुड़ी हुई है कुर्बानी हज का अहम एक हिस्सा है, पूरी दुनियां के मुसलमान तो हर साल हज नहीं कर सकते इस लिए ईदुल अज़हा के ज़रये वो हज से जुड़ते हैं उन्ही की तरह क़ुरबानी करके अल्लाह के लिए क़ुरबानी के ज़ज्बे का इज़हार करते हैं और हाजी की तरह ही हज के दिनों में नमाज़ के बाद तकबीर पढ़ते और बाल वगैरह के काटने से परहेज़ करते हैं. 
हज इसलाम में एक अहम इबादत है यह इस्लाम की पांच बुन्यादों में से एक है, हज की हिकमत जानने के लिए यह पोस्ट भी पढ़ें.


क़ुरबानी का लफ्ज़ ''क़ुर्ब'' से बना है जिसका मतलब होता है 'करीब होना'. यानि ईदुल अज़हा को अपने जानवर को ज़िबह करने का मकसद अल्लाह का क़ुर्ब हासिल करना होता है, यानि अल्लाह से अपनी नजदीकियों को बढ़ाना. 
ईद की क़ुरबानी के बारे में उलेमा में इख्तिलाफ है कुछ इसे वाजिब कहते हैं और कुछ इसे सुन्नत कहते हैं.
लेकिन यह बात दर्जनों हदीसों से साबित है कि बिना हज के मदीने में अल्लाह के रसूल (स) पाबन्दी से क़ुरबानी किया करते थे और सहाबा भी करते थे.
मिसाल के लिए देखये मुसनद अहमद 4935, सुन्न तिर्मज़ी 1501 अब्दुल्लाह बिन उमर बयान करते हैं कि नबी (स) दस साल मदीने में रहे और हर साल क़ुरबानी किया करते थे.
सही बुखारी 5545 - अल्लाह के रसूल (स) ने फ़रमाया जिसने भी ईद की नमाज़ के बाद जानवर ज़िबह किया उसकी क़ुरबानी हो गई और उसने मुसलमानों की सुन्नत पर अमल कर लिया.
सही बुखारी 5553 हज़रत अनस (र) फरमाते हैं कि अल्लाह के रसूल (स) दो मैंढो की क़ुरबानी किया करते थे और मैं भी दो मैंढो की ही क़ुरबानी किया करता था.

वैसे तो इसलाम में कुर्बानी का ज़िक्र आदम (अ) के ज़माने से मिलता है, लेकिन इसलाम में बुनयादी तौर पर कुर्बानी हज़रत इब्राहीम (अ) के ज़माने से है जब उन्होंने अपने बेटे को कुर्बान करने की कोशिश की तो अल्लाह ने उनके बेटे के बदले एक जानवर की कुर्बानी ली तब से यह अपनी जान की कुर्बानी के निशान के तौर पर हर साल दी जाती है.

क़ुरबानी में कई हिकमते हैं लेकिन इस का सबसे अहम् फलसफा यह है कि अल्लाह बन्दे के लिए सबसे बढ़ कर है.
इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि इसलाम में क़ुरबानी एक इबादत की हेस्यत रखती है और जैसा की आप जानते हैं कि इबादतें जितनी भी हैं वो सब बन्दे का अल्लाह से ताल्लुक का इज़हार होती हैं. जैसे बदन से बंदगी का इज़हार नमाज़ में होता है और माल से इबादत करने का इज़हार ज़कात और सदके से होता है, ठीक ऐसे ही क़ुरबानी जान से बंदगी करने का इज़हार है.
क़ुरबानी में अपने जानवर की जान को अल्लाह के नाम ज़िबह करके असलन बंदा इस जज़्बे का इज़हार कर रहा होता है कि मेरी जान भी अल्लाह की दी हुई है और जिस तरह आज मैं अपने जानवर की जान अल्लाह के लिए दे रहा हूँ अगर अल्लाह का हुक्म हुआ तो अपनी जान भी मैं देने के लिए तैयार हूँ. यही वह जज़्बा है जो क़ुरबानी की असल रूह है अगर हमारे अन्दर अपने जानवर की क़ुरबानी के साथ यह जज़्बा नहीं है तो यह असल क़ुरबानी नहीं है फिर यह ऐसे ही है जैसे रोज़ लोग अपने खाने के लिए जानवर ज़िबह करते हैं.
पहले ज़माने में अपने जानवरों को दो ही वजह से ज़िबह किया जाता था, एक उसका गोश्त खाने के लिए और दूसरा कुछ मजहबों में अपने देवताओं की मूर्ती को जानवर का खून देने का रिवाज था, उससे यह समझा जाता था कि यह देवता खून पीते हैं और उससे खुश होते हैं.
लेकिन क़ुरबानी में यह दोनों वजह सिरे से पाई ही नहीं जाती, क़ुरबानी के पीछे जो जज़्बा होता है वह यही है कि मेरी जान मेरे लिए नहीं अल्लाह के लिए है, यही जज़्बा क़ुरबानी का मकसद है और यही जज़्बा अल्लाह को मतलूब है. चुनाचे कुरआन में फ़रमाया - (अल्लाह के पास ना तुम्हारी कुर्बानियों का गोश्त पहुँचता है और ना उनका खून, अल्लाह को सिर्फ तुम्हारा तक़वा पहुँचता है.....सूरेह हज 37)

क़ुरबानी इस नेमत का शुक्र भी है कि अल्लाह ने जानवरों को हमारे काबू में कर दिया है, हम तो शायद इसका अहसास ऐसे नहीं कर सकते लेकिन हमारे पूर्वज जानवरों ही के सहारे पले बढ़े हैं. कई जानवर के हमसे ज़्यादा ताक़तवर होने के बावजूद अल्लाह ने उन्हें हमारे काबू में ऐसे किया कि बिना किसी मजदूरी के वह हमारे लिए काम करते रहे, हमने उन्हें खूंटे से बंधा, उन्हें ख़रीदा बेंचा, उनसे खेतों में मुश्किल काम लिए, उन पर सवारी की और भारी सामान ढोया और बिना कीमत दिए उन से दूध लिया. यह सब कुछ हमारे लिए सिर्फ इस लिए मुमकिन हुआ क्यों कि अल्लाह ने उन्हें हमारे काबू में कर रखा है.
क़ुरबानी इसका भी शुक्र अदा करना है कि उसमे आप अपने जानवर को अल्लाह के लिए कुर्बान करते हैं. इसी लिए कुरआन में इरशाद है -
और हमने हर उम्मत के लिए क़ुरबानी मुक़र्रर की है ताकि अल्लाह ने उनको जो चौपाए बख्शे हैं उन पर वो (ज़िबह करते हुए) उसका नाम लें. पस तुम्हारा मअबूद एक ही मअबूद है इसलिए तुम अपने आप को उसी के हवाले कर दो,
और खुश खबरी दो उन लोगों को जिनके दिल अल्लाह के आगे झुके हुए हैं. (सूरेह हज 34)
...ख़ुदा ने जानवरों को (इसलिए) यूँ तुम्हारे क़ाबू में कर दिया है ताकि जिस तरह खुदा ने तुम्हें बनाया है उसी तरह उसकी बड़ाई करो और नेक लोगों को (आने वाली ज़िन्दगी की) खुश खबरी दो. (सूरेह हज 37)

एक अहम हिकमत क़ुरबानी की यह भी है कि इसके ज़रिये हज़रत इब्राहीम (अ) और उनके परिवार की तौहीद के लिए की जाने वाली महनते, मशक्कतें और कुरबानियों को याद किया जाए. उस लम्हे को ख़ास कर याद किया जाए जब हज़रत इब्राहीम (अ) को ख्वाब में हुक्म दिया गया कि वह अपने बेटे हज़रत इस्माइल (अ) को अल्लाह के लिए कुर्बान करें, तो उन्होंने इस हुक्म पर अमल करने की ठानी और फिर अपने बेटे हज़रत इस्माइल (अ) से मश्वरा किया तो उन्होंने भी ख़ुशी से अल्लाह पर कुर्बान होने की इच्छा ज़ाहिर की. इस घटना में जहाँ एक तरफ हज़रत इब्राहीम (अ) के सब्र, वफादारी और अल्लाह ही का होने की तालीम है क्यों कि एक बाप के लिए अपने बच्चे की गर्दन पर छूरी चलाना खुद को मार डालने से कहीं ज़्यादा मुश्किल काम है, वहीं उनके बेटे ने भी अल्लाह के आगे झुकने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, कुरआन में उन बाप बेटों की बात चीत कुछ इस तरह नक़ल हुई है -(....इब्राहीम ने कहा - ऐ मेरे बेटे मैं ख्वाब में तुम्हे कुरबान करते हुए देखता हूँ तो तुम बताओ कि इस बारे में तुम्हारी क्या राय है ? बेटे ने जवाब दिया - अब्बू जान आप को जो हुक्म दिया जा रहा है उसे ज़रूर पूरा कीजये, अगर अल्लाह ने चाहा तो आप मुझे सब्र करने वालों में पाएँगे. सूरेह साफ्फात 102) सच है कि यह जवाब इब्राहीम के बेटे का ही हो सकता था. इसमें हज़रत इस्माइल (अ) का कमाल यह ही नहीं कि कुरबान होने के लिए तैयार हो गए बल्कि कमाल यह भी है कि अपनी अच्छाई को अल्लाह की तरफ मंसूब किया कि ''अगर अल्लाह ने चाहा तो आप मुझे सब्र करने वालों में पाएँगे'' 

इसी हवाले से एक और हिकमत इस हदीस में बयान हुई है - 
अल्लाह के रसूल (स) से सहाबा ने पूछा कि ऐ अल्लाह के रसूल (स) यह कुरबानियां क्या हैं ?
आप (स) ने जवाब दिया कि तुम्हारे बाप इब्राहीम का तरीका. (मुसनद अहमद 18797, इब्ने माजा 3127)
इस हदीस से क़ुरबानी की हिकमत समझ में आती है, वो है हज़रत इब्राहीम (अ) के तरीके को ज़ाहिरी तौर पर अंजाम दे कर उसको अमली तौर से अपनी ज़िन्दगी में शामिल करना.
इब्राहीम सिर्फ एक नाम नहीं है बल्कि इब्राहीम एक सिंबल है तौहीद पर ईमान का, इब्राहीम एक सिंबल है सच्चाई को अकली बुन्यादों पर पा लेने का, इब्राहीम एक सिंबल है सच्चाई के लिए कुरबानियों का, इब्राहीम एक सिंबल है अपनी और अपने परिवार की पूरी ज़िन्दगी अल्लाह के हवाले कर देने का.
हम जानते हैं हज़रत इब्राहीम (अ) ने तौहीद के मामले में अपने बड़ों से अपने बाप दादाओं के दीन से कोई समझोता नहीं किया, उन्होंने अल्लाह के बारे में सच के सिवा कोई बात ज़रा क़ुबूल नहीं की, हज़रत इब्राहीम (अ) वो हैं जिन्होंने आज़माइश के इम्तिहान को 100% से पास किया, जिनके बारे में कुरआन ने फ़रमाया (और जब इब्राहीम को उनके रब ने कई बातों से आज़माया तो उन्होंने उन्हें आखरी दर्जे में पूरा कर दिखाया...-सूरेह बक्राह 124)
इसी लिए अल्लाह ने फ़रमाया - 
(सलाम हो इब्राहीम पर. सूरेह साफ्फात 109)
(बेशक वो हमारे मोमिन बन्दों में से था. सूरेह साफ्फात 111)
(बेशक इब्राहीम 'अपनी जगह' एक अलग उम्मत थे, अल्लाह के फर्माबरदार, सब बातिल खुदाओं से कट कर सिर्फ एक अल्लाह के होने वाले थे और वो अल्लाह के साथ किसी को शरीक करने वाले हरगिज़ नहीं थे. सूरेह नहल 120)
लिहाज़ा सिर्फ अपने एक जानवर को कुर्बान कर लेने से हम इब्राहीम के नक़्शे कदम पर नहीं कहलाए जा सकते, उसके लिए तो हमें ''हनीफ'' होना पड़ेगा और हनीफ कहते हैं जो सिर्फ एक अल्लाह का हो जाए, उसकी नाराज़गी से डरे, उस से सबसे बढ़ कर मुहब्बत करे. कुरआन ने फ़रमाया -
(बेशक सब लोगों में इब्राहीम से करीब वो लोग हैं जो उनकी पैरवी करते हैं, और यह नबी (हज़रत मुहम्मद स.) हैं और वो लोग जो ईमान लाए (यानि सहाबा) और अल्लाह मोमिनों का साथी है. सूरेह आले इमरान 68)  
 
एक तरफ क़ुरबानी के यह अज़ीम मकसद और हिकमतें हैं और दूसरी तरफ ईदुल अज़हा को हमारा रवय्या.... आगे मुझे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं हम में से हर एक खुद अपने गिरेंबान में झांक कर देख सकता है कि क्या वाकई ईदुल अज़हा को मेरे दिल की कैफयत वही होती है जो क़ुरबानी का मकसद है, या हम क़ुरबानी सिर्फ खाने और दिखाने के लिए करते हैं ? 

जान दी....... दी हुई उसी की थी.
हक़ तो यह है कि हक़ अदा ना हुआ.

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