Sunday, November 22, 2020

एक मुसलमान कैसे इस्लाम से खारिज हो जाता है और उसको पता भी नहीं चलता!!


(कुफ्रिया गानों की वजह से)


अस्सलामु अलैकुम!


(गुस्ताखी माफ़)

नमाज़ और रोजा के बारे में हम कुछ हद तक जानते हैं,


जकात और हज के बारे में भी पढ़ते, सुनते रहते हैं,


सुन्नी और बद मजहबों पर भी खूब चर्चा होती है।


मगर...

आज एक ऐसे टॉपिक पर भी बात की जाए जिस से आज का मुस्लिम नौजवान बे-खबर है।


हम सबको ये पता है कि *गाना🎼 गुनगुनाना, सुनना और सुनाना हराम व गुनाह और जहन्नम में ले जाने वाला काम है।* लेकिन फिर भी हम में से ज्यादातर लोग, *गाने* बड़ी दिलचस्पी से सुनते हैं, लेकिन क्या आपको ये पता है कि गाने सुनने से ना सिर्फ आप गुनाहगार हो रहे हैं बल्कि कुछ वुजूहात की बिना पर *काफ़िर* भी बन जाते हैं और आपको पता तक नहीं चलता।


लेकिन कैसे ? आइये जानते है !


आज कल मुश्किल से ही कोई ऐसे गाने बचे होंगे जिसमे खुदा का नाम ना इस्तेमाल किया जाता हो, बात केवल खुदा के अल्फाज तक सीमित नहीं है अब तो *अल्लाह* का ज़ाती नाम भी गानों में लिया जाने लगा है।

और रुकिए बात अभी भी यहाँ तक खत्म नहीं होती

बल्कि

कुछ गाने तो माजल्लाह ऐसे होते है जिसमे खुदा की तोहीन की जाती है और खुदा को कुछ नहीं समझा जाता।(अस्तग्फिरुल्लाह) और ऐसे गानों को हम बहुत ही ज्यादा शौक से सुनते हैं।


यहाँ मैं आपको दो तीन गानों की मिसाल देता हूँ जिसमे बहुत ज्यादा कुफ्र बोल है जो अभी बहुत शौक से सुने जाते हैं और हैरत व अफसोस तो ये है कि इनको गाने वाला बंदा भी मुसलमान।


गायक – अतीफ असलम 

फिल्म का नाम – बागी – 2

बोल कुछ इस तरह है -  


अल्लाह मुझे दर्द के काबिल बना दिया

 तुफां को ही कश्ती का साहिल बना दिया 

 बे-चेनियां समेट के सारे जहां की 

  *जब कुछ ना बन सका* तो मेरा दिल बना दिया


पहले तो 👆इस गाने में अल्लाह रब्बुल इज्जत का नाम लिया गया है और गाने के अन्दर नचनिया नाचती है और आपस में इश्क लड़ाते हुवे बे-हया सीन दिखाए जाते हैं और अगर चौथी लाइन पर गौर किया जाए तो उसमे ये कहा जा रहा है (अस्तग्फिरुल्लाह) कि जब खुदा से कुछ नहीं बन पा रहा था तब उसने गाने वाले का दिल बना दिया  (माजल्लाह 

अल्लाह)

याद रहे अल्लाह पाक हर चीज पर कादिर है। कोई काम उसकी कुदरत से बाहर नहीं, वो जो चाहता है, करता है।


मगर इसी तरह के गाने सुनकर हम अल्लाह की कुदरत का *इन्कार* / उसमें *ऐतराज* पर दिलचस्पी लेते हैं और ईमान चला जाता है।


एक और ALBUM SONG है जो अभी बहुत चल रहा है जिसके बोल कुछ इस तरह है:

 

वास्ते जाँ भी दूँ

मैं गवा ईमाँ भी दूँ

किस्मतों का लिखा मोड़ दूँ

बदले में मैं तेरे

जो खुदा खुद भी दे जन्नते

सच कहूँ, छोड़ दूँ

 और दी गई लाइन का मतलब है की तेरे लिए मैं जान भी दे सकता हूँ तेरे लिए मैं ईमान भी गँवा सकता हूँ तेरे लिए किस्मतो का लिखा भी मोड़ सकता हूँ और बात यही ख़त्म नहीं होती गाने वाला शख्स ये कहता है की “ तेरे बदले में अगर खुदा खुद मुझे जन्नत दे तो वो भी तेरे लिए छोड़ दूँ “


क्या ये👆 बोल कुफ्रियात नही हैं??


याद रहे! ईमान के जाने या गंवाने पर खुश होना *कुफ्र* है और इसका इरादा करना भी।


और बताओ फिर

तकदीर बदलना / मोङना तो खुदा का काम है, खुद को ऐसा कर लेने वाला समझना / कहना...?

क्या ये कुफ्र व शिर्क नहीं!!??

(अलबत्ता! ये जरूर है कि अल्लाह पाक जिसे चाहे, *अपनी अता से* उसकी *दुआ पर तकदीर टाल / बदल* देता है।)


और

क्या खुदा की जन्नत के मुकाबले में एक नचनिया की कोई हैसियत है???

बल्कि

सारी दुनिया भी उस जन्नत के एक जर्रे के बराबर नहीं हो सकती।

लिहाजा ये गाने वाला तो काफिर हो ही गया और इसे दिलचस्पी से सुनकर हम भी काफिर बन रहे हैं।


एक आखरी गाना और बताना चाहूँगा जिसमे हद कर दी गई है 


गायक – अतीफ असलम

फिल्म का नाम – प्रिंस

बोल कुछ इस तरह है :


अखियाँ बिछाई मैंने तेरे लिए

दुनिया भुलाई मैंने तेरे लिए

जन्नतें सजाई मैने तेरे लिए

छोड़ दी खुदाई मैने तेरे लिए


अब आप खुद समझदार है की आखरी की दो लाइन में किस क़दर अल्लाह की तोहीन की जा रही है और गाने वाला इस गाने के जरिये कितने कुफ्रियात बोल गया।

और (अस्तग्फिरुल्लाह) ऐसे गाने हम शौक से सुनते हैं और हम भी काफिर हो जाते हो हैं और हमें पता भी नहीं चलता।


और भी इस तरह के बहुत सारे गाने है जो हम शौक से सुनते हैं जिसमे बहुत ही ज्यादा कुफ्र के बोल होते हैं


मुसलमानो! अगर सुनना ही है तो अपने आका صلی اللہ علیہ وسلم की नाते पाक सुनो और दिल के कानो से सुनो इंशा अल्लाह कभी गानों को सुनने की नोबत नहीं आएगी।

नात वो नगमा है जो कानों को ही नहीं बल्कि रूह व दिल को सुकून भी देता है। 


अल्लाह हम सबको नेक तौफीक दे और हर तरह के कुफ्र व शिर्क से बचाए।

(आमीन)


ध्यान रहे! जिस तरह नेकी फैलाना सवाबे-जारिया है,

उसी तरह ऐसे गाने / हराम व ना-जाइज कामों को भी  (सोशल मीडिया, *स्टेटस* के जारीये से) फैलाना भी गुनाहे-जारिया है।

{ यानी ये हराम व ना-जाइज काम आपके जारीये *जब तक* और *जितने लोग* देखेंगे / सुनेंगे *तब तक, उतने गुनाह* आप के आमाल-नामे में भी लिखे जाते रहेंगे}


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